Saturday, December 12, 2009

हमने भी इश्क किया था इक जमाने में......

हमने भी इश्क किया था इक जमाने में

हमारा भी नाम था शामिल दीवानों में
यहां तो उम्र की हिलोरें बन गई है मुहब्बत
पर हमे तो इश्क हुआ था उनसे अनजाने में

यहां... कोई हाथ किसी को देता है
निगाहें कहीं और होती है
ये सब तो टाइम पास हैं
मनचाही कहीं और होती है
शायद काम बन जाए...
लगाए बैठे हैं जोर ये सबको आजमाने में...

किसी को किसी के है चाल ने लूटा
किसी को किसी के है बाल गाल ने लूटा
यहां तो आशिक हैं सभी कंचन कोमल काया के
पर हमे तो लूटा था उनकी पलकों के मयखाने नें...
मैंने उसकी और उसने मेरी भावनाओं को समझा था
जुबां तक प्यार से लदी है हमारी
और वो आज तक शरमाती है
नजरें मिलाने में, नजरे मिलाने में....
हमने भी इश्क किया था इक जमाने में

नोट- ये रचना साल 2006 की है... तब मैं रांची के संत जेवियर्स कॉलेज से बीए कर रहा है... रचना के लिए उपयुक्त हालात औऱ पृष्ठभूमि मुझे कॉलेज प्रांगण में ही प्राप्त हुए थे

Wednesday, August 19, 2009

सांच को आंच !

सांच को आंच नहीं... सत्य शिव है... सदा सच बोलो... झूठ बोलना पाप है... हम में से ज्यादातर लोगों की परवरिश कुछ ऐसे ही उपदेशों के साथ होती है... लेकिन जिस तरह, कबीरदास के दोहे पढ़ने के बाद भी दुनिया, माया, मोह और नारी से मुक्त नहीं हो पाती.. उसी तरह इंसान अपनी सांसारिक जिंदगी को सिर्फ सच के सहारे नहीं जी पाता... कई छोटी बड़ी खुशियों के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ता है... सच आत्मा की आवाज होती है... जबकि झूठ मन का विकार... ये चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आजकल सच को लेकर दिखाए जा रहे एक टीवी सीरियल को लेकर देश भर में घमासान मचा हुआ है...टीवी चैनल स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाला शो सच का सामना... शुरुआत से ही सुर्खियों में है... इस कार्यक्रम में पूछे जानेवाले बेदह अंतरंग और निजी सवालों पर संसद में भी एतराज जताया जा चुका है । बावजूद इसके, इस शो के दर्शकों और हॉट सीट पर बैठकर हर सच का बेबाकी से सामना करनेवाले लोगों की कोई कमी नहीं... हां इतना जरुर है कि कई मर्तबा शो के दौरान पूछे गए सवालों से... जवाब देने बैठा प्रतियोगी भी खुद को मुसीबत में फंसा महसूस करने लगता है... लेकिन इस शो ने मेरठ में एक महिला को ऐसी मुसीबत में डाल दिया... जिसमें उसका पति ही बन बैठा उसकी जान का दुश्मन... सिर्फ एक सच ने इस पत्नी को अस्पताल के बिस्तर पर और उसके पति को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.. मेरठ के जानी थाना इलाके में रहनेवाले एक दंपत्ति पर टीवी सीरियल सच का सामना का सुरुर कुछ ऐसा चढ़ा ... कि दोनों असल जिंदगी में खेलने लगे सच का खेल... गेम खेलने के लिए पति... पत्नी को एक नहर के किनारे ले गया... जहां उसने पत्नी को प्रतियोगी की सीट पर बिठाते हुए दागा एक बेहद निजी सवाल
सवाल- क्या तुम्हारे दोनों औलादों का पिता मैं ही हूं ?
सवाल के बदले में पत्नी ने जो जवाब दिया... वो सच तो था...लेकिन उस सच को सुनते ही पति ने पत्नी पर कर दिया जानलेवा हमला...
अब सुनिए क्या था वो जवाब

पति का सवाल- क्या तुम्हारी दोनों औलादों का पिता मैं ही हूं ?

पत्नी का जवाब- दो संतानों में से एक के पिता आप हैं..
यानी एक बेटा पत्नी के नाजायज संबंधों का नतीजा था
इस कड़वी हकीकत को सुनने के बाद... पति ने अपना आपा खोते हुए पत्नी के गले पर ब्लेड से कई वार कर दिए .. और फिर पत्नी को मरा हुआ समझकर पति वहां से फरार हो गया।
लेकिन, महिला मरी नहीं थी.. बाद में कुछ लोगों ने सच का शिकार हुई उस महिला को जख्मी हालत में अस्पताल पहुंचाया.. जहां डॉक्टर सच का कहर झेलने वाली उस औरत की जान बचाने में जुटे हैं..
उधर एक बात ये भी सामने आई है कि पति को पहले से ही पत्नी के नाजायज रिश्ते होने का शक था.. जिसके लिए उसने पत्नी को बहला फुसला कर सच उगलवाया और फिर जो हुआ उससे आप वाकिफ हो चुके हैं...
ऐसा नहीं कि वो महिला नाजायज रिश्ता बनानेवाली अकेली महिला है... बल्कि हमारी आंखें हर रोज कई नाजायज रिश्तों को देखती है... भारतीय संस्कृति में रिश्तों के प्रति समर्पण की भावना को वही दर्जा प्राप्त है... जो वेद उपनिषदों औऱ पुराणों में सच को... यानी सच और रिश्तों के प्रति समर्पण की भावना दोनों महान और एक समान तप के समतुल्य हैं... ऐसे में अगर हम एक तप नहीं करते... औऱ दूसरे तप से पहले की गई गलती का प्रयाश्चित करने की चेष्टा करेंगे तो कई बार ऐसा अंजाम होना स्वाभाविक है... बहरहाल मेरठ की घटना ने ये साफ कर दिया है कि... टीवी के पर्दे पर सच सुर्खियां भले ही बटोरे...लेकिन असल जिंदगी में कई सच बेपर्दा होते ही... तबाही का रास्ता बन जाते हैं।

Tuesday, August 18, 2009

क्या यही प्यार है ?

उसकी आंखें बोलती हैं..
बड़ी-बड़ी हैं शायद इसलिए वो तेज आवाज करती हैं
मेरी आंखों से जब भी टकराती हैं उसकी आंखें
पहले टक्कर में उसकी पलकें जल्द ही गिर जाती हैं
और कपोलों पर उमंग के साथ अधरों पर तरंगें छा जाती हैं
फिर कुछ देर तक छा जाती है खामोशी
उस खामोशी में सुनाई देती है तो सिर्फ धड़कनों की तेज आवाजें...
वो आवाज देती है ताकत पलकों को उठाकर उसे फिर से देखने का
दिल कहता है बहुत अच्छा चल रहा है
दिमाग कहता है... बेटा संभल के
मैं अक्सर दिल की नहीं सुनता
लेकिन उस वक्त मेरा दिमाग हार जाता है
दिल हिलोरे मारने लगता है
आंखे फिर उन झील सी गहरी आंखों से चार होने को बेताब हो जाती है
शायद उसके साथ भी ऐसा ही कुछ होता है
तभी तो मेरे देखते ही वो भी मेरी आंखों को निहारने लगती है
मानो जैसे खामोंशी में दो दिलों ने एक दूसरे की बात सुन ली हो
ये सिलसिला हर रोज दो या तीन बार होता है
इसके बाद उसके जाने का वक्त हो जाता है
जाते वक्त मैं उसके घनघोर जुल्फों में खो जाता हूं..
लेकिन न जाने उसे कैसै इसका भी पता चल जाता है
और वो आखिरी बार मुझे उस मोड़ से देखती है..
जहां से देखने की अंतिम संभावनाएं होती हैं...
इसके बाद उसे कैसा लगता है मुझे नहीं मालूम
लेकिन कुछ पल की मायूसी के बाद
मैं फिर करने लगता हूं अगले दिन का इंतजार...
क्या इसी को कहते हैं.. मुहब्बत, इश्क और प्यार

Friday, February 27, 2009

रेल यात्रा से भली जेल यात्रा

ऐसे तो लालू जी के नाम से संलग्न उपलब्धियों की संख्या अनेक हैं, पर जिस पर मैं बौद्धिक व्यायाम करने जा रहा हूं वह है उनके द्वारा प्रस्तुत रेल बजट एवं उससे उभरते कुछ सवाल।
लालू जी द्वारा प्रस्त या प्रस्तुत रेल बजट को लेकर जहां संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार रोमांचित है वहीं लालू जी भी स्वयं के पीठ थपथपाने में पीछे नहीं हैं। विरोधी दलों द्वारा जहां इस बजट को लालू द्वारा गाल बजाने के सिवाय कुछ नहीं माना जा रहा है, वहीं वे नाराजगी व्यक्त कर गाल फुलाए बैठे हैं। सरकार के कुछ समर्थक एवं विरोधी दलों के अनेक सदस्य तो कान में तेल डालकर मौन रहना ही उचित समझ रहे हैं।
मुझ जैसा शक्तिविहीन सिद्धांत वादी(जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में आप नपुंसक कह सकते हैं) जब तटस्थ भाव से इस ऐतिहासिक बजट( जैसा की सरकार का दावा है) का विशलेषण करे तो दूसरा ही चित्र उभरता है।
रेल बजट को लोकप्रिय बताने का एक कारण ये है कि इसमें किराया में वृद्धि या बढ़ोतरी करने के बजाय कमी की गई है। मेरा मानना है कि भाड़ा में कमी एवं यात्री सुविधा में जो अंतर्विरोध झलकता है उस दृष्टिकोण से इसे आम बजट न कहकर खास बजट कहना ही न्यायपूर्ण होगा।
यात्रा का संबंध मंजिल से है। मंजिल तक पहले भी रेल यात्री पहुंचते रहे हैं, आगे भी पहुंचेंगे। प्रश्न यह है कि क्या पूर्व की स्थिति से भावी स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार होने जा रहा है। न चाहते हुए भी मैं इसका नाकारात्मक उत्तर देने को विवश हूं।
सामान्य श्रेणी के डब्बे में आज भी कोई सामान्य व्यक्ति एक बार यात्रा कर ले तो उसकी मांसपेशी का असामान्य होना तय है। भीड़ की स्थिति इन डब्बों में यह है कि दूर से देखने पर सभी यात्री एक दूसरे से गले मिलते नजर आएंगे। अगर कोई इसे भाईचारा का उदाहरण मान ले तो मैं कुछ नहीं कर सकता।
लोकप्रिय बजट का सीधा-सादा प्रतिमान यहा है कि सामान्य जनता इससे कहां तक लाभान्वित हो रही है। किराये में कमी परिमाणात्मक प्रतिमान को संतुष्ट करता है जबकि सुविधा में वृद्धि गुणात्मक प्रतिमान को। हम मानव हैं। मानव न सिर्फ बनाना या खाना चाहता है बल्कि सुंदर ढंग से बनाना या खाना चाहता है। क्या इस बजट में इस स्तर पर मानवीय प्रतिमान को पल्लवित किया गया है ? उत्तर नाकारात्मक ही होगा।
वातानूकूलित डब्बे में लोग (यात्री) लालू जी से पूर्व भी आराम से यात्रा करते थे और आज भी कर रहे हैं। सामान्य श्रेणी में पहले भी असामान्य एवं असहज स्थिति थी और आज भी लोग असहजता का अनुभव कर रहे हैं। आज हम व्यवहारबाद के युग में जी रहे हैं। अत: इसके द्वारा स्थापित मानक की उपेक्षा नहीं कर सकते। व्यवहारवाद जो पर्स, जेम्स, एवं शिलर प्रभृति विद्वानों द्वारा स्थापित सिद्धांत है का मूल है कि 'वही विचार सत्य है जो दो अनुभूतियों के मध्य उत्पन्न विविधता की व्याख्या कर सके'। इस प्रतिमान पर भी लालू जी का रेल बजट निराश ही कर रहा है। चूकि प्रथम एवं द्वितिय श्रेणी के यात्री सुविधा सम्पन्न होते हुए भी किराये में कमी के फलस्वरुप भौतिक स्तर पर लाभान्वित हो रहे हैं वहीं सामान्य श्रेणी में किराया में कमी से यात्रियों की भीड़ बढ़ने के कारण इन्हें असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
इन्हीं की असुविधा को देखते हुए मैं दुविधा का अनुभव कर रहा हूं। मेरे लिखने का आशय यह नहीं है कि मैं लालू जी के प्रति किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित हूं बल्कि इतना ही है कि लोग यथार्थ से अनजान न बनें।
कोई भी सामान्य श्रेणी में रेल यात्रा करने के पश्चात यदि जेल यात्रा करता है तो वह इन दोनों यात्राओं के मध्य शायद ही अंतर स्पष्ट कर सके। जेल यात्रा में तो भोजन वस्त्र एं आवास कम कीमत पर क्या बल्कि मुफ्त उपलब्ध रहता है। फिर भी मानवाधिकार के नाम पर, मानवीय मूल्यों के हनन के नाम पर हम इसकी आलोचना करते हैं। फिर क्या कारण हो सकता है कि मात्र कुछ रियायत प्रदान कर यदि रेलमंत्री दुखद यात्रा की व्यवस्था करें तो उनकी आलोचना न की जाय।
सार संकलन में कहा जा सकता है कि लालू जी का रेल बजट दोषरहित किंतू दूषण सहित है। सामाजिक न्याय के पुरोधा ने समाज के दबे कुचले लोगों के साथ वैसा ही अन्याय किया है जैसे फ्रांसीसी क्रांति के प्रवाह में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारों के बीच रोमांरोला की हत्या।
लालू जी के रेल बजट पर क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच यही कहा जा सकता है कि-
"राज खुल जाय न साकी की तंगदश्ती का
जाम खाली ही सही, मुंह से लगाए रखिए"

लेकिन लालू जी शायद यह भूल रहे हैं कि-
" खुश्क बातों में कहां है ये शैख कैफे जिंदगी
वो तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है"

इस बजट में जो निहित तथ्य है एवं जिस रुप में इसको प्रदर्शित किया गया है इस पर यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा-
"पये-नजरे करम तोहफा है शर्मे नारसाई का
लखूं गलतीदा-ए-सदरंग दावा पारसाई का"
आम जनता जो किराया संबंधी मूल्यों में कमी की सुखद अनुभूति से ओतप्रोत हो मानवीय मूल्यों के हनन को भूल बैठी है, उसके लिए यही कह कर लेखनी को विराम देना वांछनीय समझता हूं कि-
" वक्त आता है इक ऐसा भी मोहब्बत में की जब
दिल पे एहसास से- मोहब्बत भी गिरां होता है
कहीं ऐसा तो नहीं वो भी हो कोई आजार
तुमको जिस चीज पे राहत का गुमां होता हो"

Tuesday, February 17, 2009

शायद, वो मेरा 'आदर्श' है

बात छह साल पहले से शुरु होती है। मैनें रांची के संतजेवियर्स कॉलेज मे दाखिला लिया था। मेरा सबजेक्ट था हिंदी ऑनर्स। वैसे इसके पहले मैं रांची कॉलेज रांची से इंगलिश में ऑनर्स कर रहा था। मैंने पार्ट वन में 58 फीसदी अंक भी हासिल किए। लेकिन मेरा दिल अंग्रेजी के साहित्य में नहीं रम पाया। इसलिए मैने हिंदी से बीए करने का फैसला किया था। इस भाषा के प्यार में मैं इसलिए भी ज्यादा पड़ गया था क्योंकि मेरी पहली महबूबा सिंर्फ इसी भाषा में लिखे खत को ही समझ पाती थी। नौवीं क्लास से इंटर के दौरान मैं अमूमन हर दिन उसे दो खत लिखा करता था। और एक खत कम से कम चार पन्ने का होता था। मैनें सबसे बड़ा खत 18 पन्नों का लिखा है। जो आज भी संग्रहित है। बहरहाल मुहब्बत की बदौलत हिंदी की दीवानगी मुझपर ऐसी चढ़ी की मैं आम बोलचाल के दौरान भी शब्दकोशीय हिंदी के प्रयोग का आदी हो गया। और संत जेवियर्स जाते जाते तो हिंदी मुझपर इतना हावी हो गई की छोटी से छोटी बात को भी साहित्यिक और भाषिक तौर पर समृद्ध किए बिना मैं कुछ बोल नहीं पाता था। मेरा ये कुदरती अंदाजे बयां भी एक वर्ग को खासा लुभाती थी, तो कुछ लोगों के लिए मेरा ये अंदाज मनोज कुमार के जमाने का स्टाइल था। लेकिन इस अंदाज के चलते मुझे मेरे सहपाठियों और शिक्षकों से भी आदर मिलता था। मेरी बात हल्के में कभी नहीं ली जाती थी। ये हिंदी भाषा का ही प्रभाव था कि मेरे गांव के सभी बुजुर्ग लोग मेरे उम्र के दूसरे लड़को से मुझे ज्यादा मानते थे। वे मुझे संस्कारी कहते थे। गांव स्तर पर मुझे जिम्मेदारी भरे कई काम भी लोग आंख मूंद कर सौंप दिया करते थे। लेकिन तीन साल की पढ़ाई के दौरान मुझे न तो कॉलेज में और ना हीं किसी दूसरी जगह मेरे टाइप का कोई इंसान मिला। मैं हिंदी पर ज्यादा जोर इसलिए भी देता था क्योंकि मैंने दसवीं क्लास से ही हिंदी पत्रकारिता में जाने की ठान ली थी। बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं पत्रकारिता करने के लिए दिल्ली आ गया। इंट्रेस एक्जाम के दिन जिन लोगों से परिचय हुआ उनमें से कई ने मुझसे बातचीत के बाद यहीं कहा कि आपका सेलेक्शन तो तय है। उसकी वजह भी मैं अपनी उसी शैली को मानता हूं। सौभाग्यवश मेरा उस कॉलेज में नामांकन भी हो गया। मैं पढ़ने लगा। एडमिशन के वक्त मुझे ये उम्मीद थी कि मुझे शायद यहां मेरे जैसा कोई साथी मिल जाएगा। लेकिन अफसोस की निराशा ही हाथ लगी। मेरे साथ पढ़ने वालों में से ज्यादातर तो लड़कियां थी जिनमें से अधिकांश को भाषा के स्तर पर कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। हां कुछ की अंग्रेजी माशाअल्लाह थी। पढ़ाने वाले भी दोनों हिंदी औऱ अंग्रजी दोनों में लेक्चर देते थे इसलिए बात सबकी समझ में आ जाती थी। फिर भी मेरा मन एक हिंदी प्रेमी पत्रकार से दोस्ती के लिए तड़पता ही रह गया। पढ़ाई के दौरान ही पंजाब केसरी में पहले इंटर्नशिप और फिर नौकरी का मौका मिला। यहां मैने कई महीनों तक रिपोर्टिंग की लेकिन यहां भी जिन लोगों को संपर्क में मैं आया उनमें वो बात न थी जो मैं ढूंढ रहा था। हां ऑफिस और फील्ड में किसी-किसी को देखकर ये जरुर लगता था कि आखिर इन जैसे लोगों को पत्रकार किस बुनियाद पर कहा जाए। न तो भाव का पता और नही भाषा का। बाद में पता चलता था कि ये इस फील्ड का सबसे बड़ा जुगाड़ी आदमी है, तो इसकी फलाने विभाग में तूती बोलती है। ऑफिस में बड़ा पत्रकार उसे ही माना जाता था जो ज्यादा बिजनेस लाकर देता था। ऐसे कथित महारथियों के बीच मुझे काम करना रास नहीं आ रहा था। दफ्तर में भाषा और भाव जैसे विषयों से ज्यादा चर्चा 'कुर्सी के किस्से' की होती थी। और इसी कुर्सी गेम में हमें नियुक्त करने वाले ब्यूरो चीफ पर दालाली लेकर नौकरी देने का झूठा आरोप लगाते हुए सारी नियुक्तियां रद्द कर दी गई। साथ ही उनकी कुर्सी भी छीन ली गई। लेकिन यहां उनकी नौकरी सिर्फ इसलिए बच गई क्योंकि उनकी भाषा, विरोधी खेमे के खेवनहार से अच्छी थी। उनकी स्पष्ट और सटीक भाषा शैली में लिखे खत ने सबको चित कर दिया। सब अंदर तक कांप गए। वो नहीं झुके बल्कि मैनेजमेंट झुका। उन्हें उनकी कुर्सी वापस देने को बुलाया गया। लेकिन उन्होंने ये स्पष्ट तौर पर जाहिर कर दिया की जिस दफ्तर में मेरा अपमान हुआ वहां मैं नहीं जा सकता। अंत में उनके घर में ही ब्यूरो ऑफिस बनाया गया है।
कुछ दिनों बाद मुझे अमर उजाला में नौकरी मिल गई। मैं यहां डेस्क पर नियुक्त हुआ। यहां मुझे कई ऐसे लोग मिले जो मेरे आर्दश इंसान के बहुत करीब थे। लेकिन पूरी तरह आदर्श कोई नहीं मिला। हां संपादक शशि शेखर जी के साथ दो मीटिंग में शामिल होने का मुझे मौका मिला। मीटिंग में शशि जी जिस प्रवाह से हिंदी का इस्तेमाल करते हैं, मैंनें वैसा अब तक नहीं देखा। उनकी बातों से लोगों में ज्यादा जोश आ जाता है। ऐसा इसलिए की उनकी हर बात भाषा और साहित्य का मिला जुला लेप होती है (ऐसा मुझे लगता है)। शशि जी जैसे संपादक के साथ करने का गर्व उनसे पहली मुलाकात के बाद से ही था लेकिन वहां पैसा कम होने के चलते मैं अपनी जिंदगी को व्यवस्थित नहीं कर पा रहा था। वहां अभी छह महीने भी नहीं बीते थे कि एक टीवी चैनल में काम करने का मौका मिल गया। टीवी के ग्लैमर और दोगुने पैसे की लालच में मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली। यहां भी मेरी खोज जारी रही। कुछ लोग मिले भी जिनसे कुछ सीखने को मिला, लेकिन कोई ऐसा नहीं मिला जिसे आदर्श कहा जा सके। कई तो ऐसे मिले जो कहने को मुझसे पंद्रह साल सीनियर लेकिन गलतियां इतनी कि पांचवी क्लास का बच्चा भी शरमा जाए। और मेरी बदनसीबी देखिए की वैसे ही लोगों को भाषा की शुद्धिकरण के मंत्रोचार का जिम्मा दिया गया है। यहां कुछ महीने बीते ही थे कि एक विशाल कद काठी और अप्रतिम कुदरती सौंदर्य वाले युवक को देखा। चेहरे पर तेज और हर वक्त एक विनम्र मुस्कान के साथ हर किसी का हिंदी में अभिवादन करने वाला ये युवक चंद दिनों में ही सबकी निगाह में आ गया। धीरे-धीरे हमारी बातचीत भी बढ़ी। उसकी हर बात में मुझे वो बात दिखाई देती जो मैं अब तक ढूंढ रहा था। भाषा और भाव दोनों पर उसका अजब नियंत्रण है। हर माहौल में उसकी अभिव्यक्ति उसका धाक जमाने में कारगर होती है। वो अच्छा लिखता है। जान पहचान के बाद पता चला कि ये उसकी पहली नौकरी है। लेकिन जो नहीं जानते वो यही समझते हैं कि आदमी काफी अनुभवी है। कहते हैं न कि जब किसी से उसके मन के विपरीत काम कराया जाने लगे तो इंसान घुटने लगता है। ऐसा ही हुआ उसके साथ। उसके हुनर को नजरअंदाज करते हुए उससे वो काम कराया जाने लगा जिसमें न तो भाषा का और ना ही भाव की अहमियत है। बल्कि वहां वही कामयाब होते हैं जो अपनी भाषा और भाव दोनों को विकृत कर लें। इसी तनाव में उस नौजवान का गुलाबी चेहरा काला होने लगा। उसकी रातों की नींद हराम हो गई। मुझे हर वक्त उसकी चिंता रहती। लेकिन मैं कुछ न कर पाता क्योंकि मैं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हूं। अंतत: उसका कोमल मन इस काम से इस कदर उखड़ा की उसने नौकरी को ही बॉय-बॉय करने की ठान ली। लेकिन बॉस ने कहा कि तुम 20 दिन की दिन छुट्टी पर चले जाओ। आराम करो। मन करेगा तो काम करना नहीं तो अपने निर्णय के लिए तुम स्वतंत्र हो। मैने भी बॉस से बात की और उसकी परेशानी बताई । मैं चाहता हूं कि वो आज भी मेरे साथ रहे। क्योंकि उसकी उपस्थिति मुझे एक ताकत देती है। ताकत उस हकीकत का जो उसके बिना मुझे सिर्फ सपना ही लगता है। लेकिन वो तो चला गया है। उसका हाल जानने के लिए मैने उसके बनाए प्याले को भी खंगाला। लेकिन वो तो पिछले 8 दिनों से अपने प्याले से भी भी नादरद है। उसके प्याले का पान करने वालों उससे कहों कि वो लौट आए। क्योंकि शायद, वो मेरा 'आदर्श' है

नोट: मैं हिंदी भाषा से बेहद प्यार करता हूं लेकिन अभी भी इस भाषा को सीखने की कोशशि जारी है। अगर कहीं कोई अशुद्धि हुई होगी तो कृप्या क्षमा करें।
सबका
'छलिया' प्रभात

Sunday, September 28, 2008

मौज की सजा
एक दिन गया मैं पार्क में, हुआ अचंभा देखकर
जिस शय से डरता था दिल, दिल ने कहा तू वो कर
देखा एक हसीना थी, ना हया शर्म ना लाज डर
कोई आए, कोई जाए, कोई देखे... देखकर मुस्काए
मैं देख उसे हुआ शर्मत्तर
अपने प्रियतम के बाहों में लेटी थी रख वो अपना सर
कभी घूरती उसकी आंखों को. कभी चूमती उसकी बाहों को
कभी लिपट जाते थे परस्पर दो अधर
तनिक भी ख्याल न था उसे की इस मजा का हश्र क्या होगा
भड़क गई गर आग तन की तो कम से कम नौ माह का सजा होग
किस्मत होगी गर ठीक अगर तो डॉ़क्टर से जमानत मिल जाएग
और नहीं तो शमशान पे मां बाप का बैंड बज जाएगा
हर तरफ थूथू होगी गाली से कान पक जाएगा
इतना तक तो चलेगा...........
पर उसका क्या होगा जो इस धरती पर आएगा
सोचो क्या मासूम वह सर भी कभी उठाएगा
तुम करो मजा का जुर्म और सजा वह हर पल पाएगा
होकर दक्ष श्रेष्ठ भी वो अपमान सरासर पाएगा
तुम करो मजा का जुर्म और सजा वह हर पल पाएगा
गर होगा वह यशस्वी तो कोई दुर्योधन उसे बहलाएगा
अंत होगा यह कि किसी अर्जुन की भेंट चढ़ जाएगा
तुम कुंती सी बिलखोगी और सूर्य नजर नहीं आएगा
तुम करो मजा का जुर्म और सजा वह हर पल पाएगा

Saturday, June 28, 2008

शिंजनी की रियलिटी

शिंजनी की रियलिटी
वेस्ट बंगाल की शिंजनी एक रियालिटी शो में जज की नसीहत को बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण कोमा में चली गई। शिंजनी 16 साल की एक ऐसी लड़की, जिसकी चाहत तो ऊंचे उड़ान भरने की थी, लेकिन अफसोस की उड़ान भरने से पहले ही चोटिल हो गई शिंजनी...। जिसने भी इस खबर को सुना उसे कुछ अलग ही किस्म के दर्द का एहसास हुआ...। लेकिन घटना के बाद जिस तरह से जजों की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया जाने लगा वह हमारी उसी महत्वकांछा को दिखाता है... जिस महत्वकांछा की पूर्ती नहीं होने पर शिंजनी अपना सुध-बुध खो बैठी...। और जजों की भूमिका को सबसे ज्यादा गलत बताने की कोशिश की टेलीविजन मीडिया ने क्योंकि आधे घंटे का प्रोग्राम चलाने के लिए उन्होंने इस घटना जुडें दूसरे पहलुओं पर चर्चा की कोशिश ही नहीं की...।
मैं शिंजनी की हालत से दुखी जरुर हूं लेकिन ये मानने को बिल्कुल तैयार नहीं के जिम्मेवार शो के जज हैं... बल्कि मेरे लिहाज से मासूम शिंजनी अभी इतनी समझदार नहीं हुई थी कि वो स्टेज पर अपनी आलोचनाओं को बर्दाश्त कर सके... अगर जज शो में शिंजनी को गलतियों पर नसीहत नहीं देते तो आखिर उसे कौन बताता कि संगीत में आगे बढ़ने के लिए उसे और क्या करना चाहिए... उसी जज को जायज माना जाता है जो ईमानदार फैसला दे... और अगर फैसले की परिणति किन्ही कारणों से दुखद हो जाए तो इसमें जज की क्या गलती... लोकप्रियता पसंद आलोचक प्रवृति की मीडिया और लोगों के लिए जज इस मामले में सबसे सुलभ निशाना नजर आए इसलिए वे इसे भुना रहे है... और अगर वो शिंजनी की हालत के लिए जज को जिम्मेवार मानते हैं तो... ऐसे लोग भी कम बड़ा गुनाह नहीं कर रहे ... क्योंकि जिस तरीके से जज को सरेआम गुनाहगार घोषित किया जा रहा है... कहीं ऐसा न हो की अपराधबोध की भावना से ग्रसित होकर जज कुछ ऐसा-वैसा कदम उठा ले... तब गुनाहगार कौन होगा ?

इस हादसे के बाद रियलिटी शो को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। इन्हें भी कटघरे में खड़ा करने का काम वही चैनल कर रहे हैं जो 24 घंटे न्यूज चलाने का लाइसेंस लेकर 12 घंटे रियलिटी शो को रिकार्ड करके चलाते है...। लेकिन मसाला प्रेमी ऐसी मीडिया की बात पर कैसे यकीन करें... रियलिटी शो ने कई छुपे रुस्तमों से दुनिया का परिचय तो कराया ही... कितने होनहारों की जिंदगी भी बदल दी। कईओं को आगे बढ़ने का राह दिखाया तो इसके जरिए भावनात्मक संबंध भी जुड़े... । रियलिटी शो से प्रभावित होकर कई माता पिता ने अपने बच्चों के हुनर को तराशने में दिलचस्पी दिखाई। जो हमारे कलात्मक विकास के अनेकों वैराइटी की संभावनाएं बढ़ा रहा है।
शिंजनी रियालिटी शो के कैंडिडेट्स और उनके माता-पिता को एक सबक दे गई... कि इस खेल में भी धैर्य की जरुरत है... अपने आपको हरपल मजबूती से पेश करने की जरुरत है... हर विपरीत परिस्थितियों से जूझने की जरुरत है... अपनी आपको हार और जीत से उपर समझने की जरुरत है.. ये फार्मूला सभी बचपन से पढ़ते और सनते आएं हैं... लेकिन जरुरत पड़ने पर भूलते भी आए है... शिंजनी की घटना को मेरी शब्दों में कहें तों...
" दिल्लगी उतनी करो जिससे दिल बहल जाए,
इतना नहीं की दिलबर ही दिल का कातिल निकल जाए"

'छलिया' प्रभात